قصيدة ليلة 2 محرم
24/10/1445 - 3:05 م 99
يوليدي من جيت الگبُر ودي أضمك |
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بس خايِفة تلچِم ضلع مني و يألمك |
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حتى بمماتي ماشِفِت يوليدي راحة |
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تودعني واسمع وَنَّك وصوت المناحة |
لكن وِداع ابلا حُضُن.. تنزف جِراحة! |
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صدري تهشَّم ياحُسين وتعذر ٱمك |
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للطف يماي عيوني شديت المحامل |
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وعفت العليلة تنتحب مثل الثواكل |
و ظعنك يرد بس باليتامى والأرامل |
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ما ترجع و غُسلك يصير ابجاري دمَّك |
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القاسم اتزفونه من دم المُصيبة! |
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وللخيمة متگطع علي الأكبر تجيبه |
حتى رضيعك حرملة بنبلة يصيبة |
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و بمقتل العباس اَون تنظُرني يمَّك |
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يمَّك إذا احتار المُهُر أنعى و أتبعه |
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وسهم المُثلث من خرز ظهرك تطلعه! |
وشمر الضبابي نحرك ابسيفه يِگطعه |
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راسك يرفعه بالرُمُح يبني ويشتمك! |
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نار الخِيم لو يحصل اَخمِدها بِدَيَّه |
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وأحمي العقيلة من يچتفوها سبية |
مسلب و عريان و تدوسك لَعْوجية |
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شاللي جنيته وينطحن عالغبرة عظمك!! |